कावड़ यात्रा और रावण का अनसुना रहस्य! जानिए कैसे जुड़ा है लंकापति से शिवभक्तों का ये अनुष्ठान
Sawan 2025: श्रावण मास के आते ही उत्तर भारत में कांवड़ यात्रा की धूम मच जाती है। लाखों श्रद्धालु गंगा जल लाने के लिए हरिद्वार, गंगोत्री, गौमुख और अन्य तीर्थ स्थलों की ओर पैदल यात्रा करते हैं और जल लाकर शिवलिंग का अभिषेक करते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि इस परंपरा का संबंध लंकापति रावण से भी जुड़ा हुआ है? आइए जानते हैं कांवड़ यात्रा की पौराणिक मान्यता और इसका रावण से संबंध।
रावण और जलाभिषेक की कहानी
पौराणिक कथाओं के अनुसार, रावण भगवान शिव का परम भक्त था। एक बार उसने शिव को लंका ले जाने की इच्छा प्रकट की। इसके लिए उसने हिमालय पर तपस्या कर शिव को प्रसन्न किया। शिव ने उसे दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा। रावण ने शिवलिंग को लंका ले जाने की अनुमति मांगी। भगवान शिव ने शर्त रखी कि शिवलिंग को जहां रखा जाएगा, वहीं वह स्थिर हो जाएगा।
रावण शिवलिंग को लेकर लंका की ओर चला लेकिन रास्ते में उसे लघुशंका लगी। उसने एक ग्वाले (भगवान विष्णु के अवतार) को शिवलिंग थमा दिया। ग्वाले ने शिवलिंग को वहीं रख दिया और वह वहीं स्थिर हो गया। इस स्थान को आज बैद्यनाथ धाम (झारखंड) के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि रावण ने वहीं गंगाजल से शिवलिंग का अभिषेक किया था। इसी कथा के आधार पर जलाभिषेक की परंपरा शुरू हुई।
कांवड़ यात्रा की शुरुआत
कांवड़ यात्रा की परंपरा त्रेतायुग से मानी जाती है, लेकिन इसका व्यापक रूप से उल्लेख रामायण और शिवपुराण में भी मिलता है। भगवान परशुराम भी कांवड़ में गंगाजल भरकर लाए थे। वर्तमान में श्रावण मास में यह यात्रा विशेष रूप से उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान और बिहार में बड़े स्तर पर होती है।
धार्मिक और आध्यात्मिक महत्व
कांवड़ यात्रा सिर्फ एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि यह आत्मशुद्धि और भक्ति का प्रतीक भी है। श्रद्धालु पैदल चलकर कष्ट सहते हैं, जिससे उनमें संयम, सेवा और श्रद्धा की भावना प्रबल होती है। जलाभिषेक से भगवान शिव प्रसन्न होते हैं और भक्तों को सुख, शांति और मोक्ष का आशीर्वाद मिलता है।
(Disclaimer: यहां पर प्राप्त जानकारी सामान्य मान्यताओं और जानकारियों पर आधारित है। Dailynews7 इसकी पुष्टि नहीं करता है।)