1948 का वो खूनी सच जिसे कांग्रेस ने दबा दिया! गांधी हत्या के बाद 5 हजार से ज्यादा ब्राह्मणों का हुआ था नरसंहार?
“दे दी तूने आज़ादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल”, सत्य कहें तो इस पंक्ति ने वर्षों तक पुरे देश को भ्रमित किया। इतना ही नहीं, जब ये ‘संत’ परलोक सिधारे, तो भी इनका जाना भी कोई आम बात नहीं थी।
‘हे राम’ नामक फिल्म में जब गांधी को मार गिराया जाता है, तो फिल्म का मुख्य किरदार उच्चाधिकारियों की एक मीटिंग के बाहर खड़ा होकर सब सुन रहा होता है, जहां सब इस बात पर चैन की श्वास लेते हैं की हत्यारा मुसलमान नहीं था। 30 जनवरी 1948 को मोहनदास करमचंद गांधी को विभाजन से विक्षुब्ध, हिन्दू महासभा के एक कार्यकर्ता और RSS के पूर्व स्वयंसेवक नाथुराम विनायक गोडसे ने नारायण आप्टे के साथ मिलकर मार गिराया। दोनों को ही पकड़ लिया गया और पुलिस के हवाले कर दिया गया।
परंतु यह कथा यहीं पर खत्म नहीं हुई। टाइम्स नाऊ को एक वार्तालाप में विनायक दामोदर सावरकर के विषय पर शोध कर रहे विक्रम सम्पत ने बताया, “बहुत कम लोग जानते हैं कि 1948 में वैसे ही नरसंहार हुआ था, जैसे 1984 में इंदिरा गांधी के मरने पर हुआ था। आप बस अंत के दो डिजिट बदल दीजिए, और महाराष्ट्र में हुए ब्राह्मण विरोधी नरसंहार की आपको अनुभूति हो जाएगी। बॉम्बे से होते हुए यह पुणे, नागपुर, सतारा, सांगली इत्यादि में फैल गया था। हज़ारों ब्राह्मणों को या तो मार डाला गया या फिर उनकी संपत्तियों को नष्ट कर दिया गया। स्वयं मध्य प्रदेश में पूर्व मंत्री रह चुके द्वारका प्रसाद मिश्र ने इस बात को स्वीकारते हुए कहा कि कई कांग्रेस कार्यकर्ता, जो प्रमुख रूप से इस पार्टी के सदस्य थे, वे सभी इस कार्य में भली-भांति शामिल थे!” –
लेकिन नाथुराम गोडसे के कारण पूरे समुदाय पर हमला क्यों? असल में गोडसे तत्कालीन बॉम्बे स्टेट के पुणे शहर के चितपावन ब्राह्मण समुदाय से संबंध रखते थे, जिन्होंने एक समय पुणे समेत सम्पूर्ण भारत पर शासन किया था। जिस हिंदवी स्वराज्य का स्वप्न छत्रपति शिवाजी महाराज ने देखा था, उसे पेशवा बाजीराव बल्लाड़ और पेशवा माधवराव एवं चिमाजीराव अप्पा जैसे चितपावन ब्राह्मणों ने पूर्ण किया। 1857 के पश्चात जब भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की धार क्षीण हो चुकी थी, तो उसे पुनः पटरी पर लाने में चापेकर बंधुओं की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। ‘लोकमान्य’ बाल गंगाधर तिलक के बिना भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की परिकल्पना करना भी लगभग असंभव है।
लेकिन मोहनदास गांधी की हत्या का प्रभाव ऐसा पड़ा कि स्वतंत्र भारत का प्रथम सुनियोजित नरसंहार प्रारंभ हुआ, जिसमें निशाने पर चितपावन ब्राह्मण थे। तब तक बॉम्बे स्टेट क्या, देशभर में हिंदुओं, विशेषकर ब्राह्मणों के विरुद्ध घृणा का वातावरण व्याप्त था। जब विदेशी मीडिया ऐसी फोटो छापे, तो आप समझ सकते हैं कि हिंदुओ, विशेषकर ब्राह्मणों के विरुद्ध घृणा किस स्तर तक थी –
ये तो केवल बॉम्बे की खबर है, असली आँकड़ें तो आज तक जारी नहीं हुए है। एक आम अनुमान के अनुसार कुछ लोगों का मानना है कि 5000 से अधिक ब्राह्मण मारे गए, तो कुछ लोगों का मानना है कि 8000 से अधिक चितपावन ब्राह्मण मारे गए। उस वक्त की घटनाओं का वर्णन करने वाली किताब ‘गांधी एंड गोडसे’ में भी इसके प्रमाण मिलते हैं कि ब्राह्मणों के खिलाफ उस वक़्त काफी भयंकर माहौल बना दिया गया था, चितपावन ब्राह्मण समुदाय के लोगों की हत्याएँ आम हो गई थीं। इस पर भी जब कांग्रेस का मन नहीं भरा तो वहाँ ब्राह्मणों का सामूहिक बहिष्कार किया गया। भालजी पेंढारकर जैसे प्रख्यात कलाकार तक इस घृणास्पद अभियान के प्रकोप से नहीं बच पाए।
Not many would know that a pogrom very similar to the 1984 anti-Sikh riots in Delhi was orchestrated by the Congress after Gandhi’s assassination in 1948 in Maharashtra.
Brahmins were targeted and thousands of them murdered to avenge the death says historian @vikramsampath. pic.twitter.com/Q6uiHvZCFd
— Amit Malviya (@amitmalviya) July 27, 2021
किताब ‘गांधी एंड गोडसे’ के चैप्टर-2 के उप-शीर्षक 2.1 में मॉरिन पैटर्सन के उद्धरणों में इस बात का ज़िक्र किया गया है। अपने उद्धरण में मॉरिन ने बताया है कि कैसे गाँधी के अनुयाइयों द्वारा फैलाई जा रही इस हिंसा ने ब्राह्मणों के प्रति नफरत फैलाने वाले संगठनों ने भी हवा दी। इनमें कुछ ऐसे संगठन भी थे जिनका नाम ज्योतिबा फुले से जुड़ा है। लेखक मॉरीन ने दंगाग्रस्त इलाकों का दौरा किया था। उस समय के अपने संस्मरण को उद्धृत कर उन्होंने लिखा है कि पुलिस के दखल के बाद जाकर कहीं इस भीड़ से सावरकर को निकाल, उन्हें शारीरिक क्षति से बचा लिया गया l हालाँकि, उन्होंने यह भी बताया कि दंगे को लेकर पुलिस ने कभी कोई भी सरकारी रिकॉर्ड उनसे शेयर नहीं किया। कई विश्लेषक मानते हैं कि अगर इस नरसंहार का आँकलन किया जाय तो 1948 का ब्राह्मण नरसंहार 1984 में हुए सिख दंगे से किसी मायने में भी कम नहीं है।
देश में दंगों का सिलसिला बँटवारे के पहले से होता आ रहा है मगर आज़ादी के बाद इसे नियंत्रित कर ख़त्म कर देना जिनके जिम्मे था, उन्होंने इसे पीढ़ी दर पीढ़ी सिर्फ़ किसी विरासत की तरह आगे बढ़ाया। चितपावन ब्राह्मणों के नरसंहार से जो कुरीति प्रारंभ हुई, वो आज भी सेक्युलरिज्म के नाम पर खत्म होने का नाम नहीं ले रही!